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Wednesday, August 20, 2025

गवर्नर, बिल और अनुच्छेद 200 : "मनमर्जी" पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता

 

गवर्नर, बिल और अनुच्छेद 200 : "मनमर्जी" पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता

✍️ सूर्यवंशी IAS – UPSC अभ्यर्थियों के लिए


🔎 प्रसंग

20 अगस्त 2025 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न उठाया:
क्या निर्वाचित राज्य सरकारें केवल इसलिए असहाय हो सकती हैं कि गवर्नर विधेयकों को पास न करके अपनी मनमर्जी से रोके रखें?

CJI बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने अनुच्छेद 200 की व्याख्या पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि यह स्थिति संघवाद, लोकतंत्र और शक्तियों के पृथक्करण पर सीधा प्रहार होगी।


📜 संवैधानिक प्रावधान : अनुच्छेद 200 और 201

👉 अनुच्छेद 200 (गवर्नर द्वारा विधेयकों पर सहमति)
गवर्नर के पास चार विकल्प हैं:

  1. सहमति देना → विधेयक कानून बन जाएगा।

  2. सहमति रोकना → विवादित व्याख्या (क्या बिल लुप्त हो जाएगा?)।

  3. राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना → विशेषकर जब विधेयक संघ कानून से टकराए।

  4. विधेयक वापस भेजना (मनी बिल छोड़कर) → यदि दोबारा पारित हुआ तो गवर्नर बाध्य होंगे सहमति देने के लिए।

👉 अनुच्छेद 201
यदि बिल राष्ट्रपति के पास सुरक्षित रखा गया है तो वे सहमति दे सकते हैं या रोक सकते हैं।


⚖️ सुप्रीम कोर्ट में बहस

मुख्य न्यायाधीश की चिंता

  • यदि गवर्नर अनिश्चित काल तक सहमति रोक सकते हैं, तो क्या निर्वाचित सरकारें उनकी दया पर निर्भर रहेंगी?

  • यह लोकतांत्रिक सिद्धांत को कमजोर करेगा कि कानून बनाने में अंतिम अधिकार विधानसभा का है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का पक्ष

  • सहमति रोकने का अधिकार सीमित है और इसका प्रयोग केवल तभी होना चाहिए जब–

    • विधेयक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करे।

    • राष्ट्रीय लोकतांत्रिक इच्छा के विपरीत हो।

  • गवर्नर "निरर्थक" नहीं हैं; वे राष्ट्रपति के प्रतिनिधि हैं।

कपिल सिब्बल की दलील

  • यदि राज्यों में गवर्नर बिल रोककर उसे "लुप्त" कर सकते हैं, तो यही तर्क राष्ट्रपति पर भी लागू होगा (अनुच्छेद 111)।

  • लेकिन संसद में ऐसा कभी नहीं हुआ।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा का अवलोकन

  • संवैधानिक व्याख्या स्थिर नहीं रह सकती।

  • संस्थापक यह मानकर चले थे कि गवर्नर और स्पीकर गरिमा के साथ कार्य करेंगे।

  • लेकिन वर्तमान वास्तविकता (जैसे दसवीं अनुसूची के मामलों का दुरुपयोग) इसके विपरीत है।


📌 मुख्य मुद्दे

  1. लोकतांत्रिक जवाबदेही

    • गवर्नर निर्वाचित नहीं होते।

    • क्या वे जनता की इच्छा को रोक सकते हैं?

  2. संघवाद और केंद्र-राज्य तनाव

    • तमिलनाडु, केरल, पंजाब, तेलंगाना में गवर्नर-विधानसभा विवाद।

    • सहकारी संघवाद की भावना पर प्रश्न।

  3. न्यायिक समीक्षा और संवैधानिक नैतिकता

    • क्या न्यायालय नई व्याख्या देकर दुरुपयोग रोक सकते हैं?

    • जैसे दलबदल विरोधी कानून की व्याख्या समय के साथ बदली।


📚 UPSC से संबंधित पिछले प्रश्न

प्रिलिम्स (2022)
प्रश्न: गवर्नर के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:

  1. गवर्नर कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है।

  2. गवर्नर सभी मामलों में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे होते हैं।

कौन-सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1 ✅
(B) केवल 2
(C) 1 और 2 दोनों
(D) न तो 1 न ही 2

व्याख्या:
अनुच्छेद 200 के अंतर्गत गवर्नर बिल राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।
लेकिन सभी मामलों में वे बाध्य नहीं हैं (कुछ विवेकाधिकार है)।

मेन (2022, GS-II)
“राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग की आवश्यक शर्तों पर चर्चा कीजिए। राज्य विधेयकों पर सहमति में देरी करने हेतु विवेकाधिकार के उपयोग की वैधता पर विचार कीजिए।”


📝 आगे का रास्ता (Way Forward)

  • समयसीमा तय करें: गवर्नर को बिल पर निर्णय हेतु संवैधानिक समयसीमा।

  • विवेकाधिकार सीमित करें: असहमति रोकने का अधिकार मनमाने तरीके से न प्रयोग हो।

  • संघवाद को मजबूत करें: गवर्नर और राज्य कार्यपालिका में सामंजस्य बढ़े।

  • न्यायिक स्पष्टता: अनुच्छेद 200 पर SC का निर्णय भावी दिशा तय करेगा।


🎯 UPSC हेतु निष्कर्ष

अनुच्छेद 200 मात्र एक प्रक्रिया नहीं है; यह केंद्र और राज्य के बीच शक्ति-संतुलन को परिभाषित करता है।
सुप्रीम कोर्ट का आगामी निर्णय गवर्नर की भूमिका को भारतीय लोकतंत्र में पुनर्परिभाषित कर सकता है।

🔥 सूर्यवंशी IAS टिप (Mains के लिए):
उत्तर लिखते समय अनुच्छेद 200 और 201 का उल्लेख अवश्य करें, साथ ही तमिलनाडु, पंजाब, केरल जैसे वर्तमान विवादों के उदाहरण दें। निष्कर्ष में संवैधानिक सुधार और न्यायिक हस्तक्षेप का सुझाव अवश्य जोड़ें।

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