राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्ति, विधेयकों पर समयसीमा और सर्वोच्च न्यायालय: एक संवैधानिक बहस
लेखक: Suryavanshi IAS
प्रस्तावना
भारत के संघीय ढाँचे में राज्यपाल की भूमिका बार-बार विवाद और बहस का विषय रही है। हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दलील दी कि राज्यपाल को “विदेशी” या “बाहरी व्यक्ति” की तरह नहीं देखा जा सकता जिन पर अदालत समयसीमा थोप दे। यह दलील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) में दी, जिसकी सुनवाई प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ कर रही है।
मूल विवाद अप्रैल 2024 के उस फैसले से उपजा है जिसमें दो-न्यायाधीशों की पीठ ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए तीन माह की समयसीमा तय की थी और कहा था कि वे अनिश्चितकाल तक राज्य विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते।
पृष्ठभूमि
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अप्रैल 2024 का सुप्रीम कोर्ट निर्णय
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तीन महीने की समयसीमा तय की गई।
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राज्यपाल के विवेक पर रोक लगाई गई कि वे बिना कारण विधेयक को लटकाते न रहें।
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राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference)
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मामला अब संविधान पीठ को भेजा गया।
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तमिलनाडु का तर्क: राष्ट्रपति संदर्भ का उपयोग किसी निर्णय को फिर से खोलने या निरस्त करने के लिए नहीं किया जा सकता।
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केंद्र सरकार का पक्ष (तुषार मेहता द्वारा)
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अदालत ने संविधान द्वारा दिए गए क्षेत्र में अतिक्रमण किया।
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अनुच्छेद 200 और 201 में समयसीमा का अभाव जानबूझकर छोड़ा गया संवैधानिक विकल्प है।
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अदालत अनुच्छेद 142 के अंतर्गत “deemed assent” (मानी हुई स्वीकृति) की अवधारणा नहीं बना सकती।
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संबंधित संवैधानिक प्रावधान
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अनुच्छेद 200 – राज्यपाल की शक्तियाँ
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विधेयक को स्वीकृति देना।
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स्वीकृति रोकना।
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राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना।
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पुनर्विचार हेतु वापस भेजना (मनी बिल को छोड़कर)।
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अनुच्छेद 201 – राष्ट्रपति की शक्तियाँ (जब राज्यपाल विधेयक सुरक्षित रखता है)
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स्वीकृति देना।
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स्वीकृति रोकना।
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कोई समयसीमा निर्धारित नहीं।
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अनुच्छेद 142 – पूर्ण न्याय हेतु सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति
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परंतु इससे न्यायालय को नए संवैधानिक सिद्धांत गढ़ने का अधिकार नहीं।
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केंद्र सरकार के मुख्य तर्क
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राज्यपाल “पोस्ट ऑफिस” नहीं हैं:
वे केवल विधेयकों को पास कराने की औपचारिकता नहीं निभाते, बल्कि “जल्दबाज़ी में बने कानूनों” पर संवैधानिक रोक हैं। -
लोकतांत्रिक वैधता:
यद्यपि राज्यपाल परोक्ष रूप से नियुक्त होते हैं, पर वे संघीय ढाँचे के वैध संवैधानिक अंग हैं। -
न्यायिक अतिक्रमण:
समयसीमा थोपना = संविधान में संशोधन।
यह काम केवल संसद या संविधान सभा का है, अदालत का नहीं। -
शक्तियों का पृथक्करण:
एक अंग की विफलता/त्रुटि दूसरे अंग को उसकी शक्ति हड़पने का अधिकार नहीं देती।
तमिलनाडु का पक्ष
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राष्ट्रपति संदर्भ का उपयोग निर्णय बदलने के लिए नहीं किया जा सकता।
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विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लटकाना = लोकतंत्र की भावना और विधानमंडल की सर्वोच्चता पर आघात।
व्यापक संदर्भ
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संघवाद (Federalism):
राज्यपाल का पद अक्सर केंद्र बनाम राज्य टकराव का कारण बनता है। -
संविधान की चुप्पी:
संविधान निर्माताओं ने समयसीमा जानबूझकर नहीं डाली थी, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह जवाबदेही का संकट पैदा करता है। -
न्यायिक नज़ीरें:
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शमशेर सिंह बनाम पंजाब (1974): राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं।
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नबाम रेबिया (2016): राज्यपाल मनमानी नहीं कर सकते।
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अप्रैल 2024 का फैसला = न्यायालय द्वारा समयसीमा तय।
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UPSC हेतु प्रासंगिकता
जीएस पेपर-II (राजनीति व शासन)
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शक्तियों का पृथक्करण।
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संघवाद।
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राज्यपाल की भूमिका।
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न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम।
पूर्व वर्ष प्रश्न (PYQs)
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UPSC 2018 (GS-II):
“क्या सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय राज्यपाल और राज्य विधानमंडल के बीच राजनीतिक संघर्ष का समाधान कर सकता है? विवेचना कीजिए।” -
UPSC 2021 (GS-II):
“भारतीय संविधान में राज्यपाल की भूमिका बार-बार विवाद में रही है। आलोचनात्मक परीक्षा कीजिए।” -
UPSC 2017 (Prelims):
“निम्नलिखित में से कौन-सी शक्तियाँ राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्तियों में आती हैं?”
आलोचनात्मक विश्लेषण (Suryavanshi IAS दृष्टिकोण)
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केंद्र की दलील का महत्व:
न्यायालय द्वारा समयसीमा तय करना वास्तव में संविधान संशोधन जैसा लगता है। -
परंतु व्यावहारिक समस्या:
यदि राज्यपाल लंबे समय तक विधेयक लटकाते हैं तो यह जनादेश व लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपमान है। -
आगे की राह:
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संसद या संविधान संशोधन द्वारा समयसीमा तय की जा सकती है।
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तब तक अदालत को संतुलित रुख अपनाना चाहिए – जवाबदेही सुनिश्चित करना परंतु संविधान में संशोधन न करना।
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निष्कर्ष
यह बहस केवल समयसीमा की तकनीकी समस्या नहीं है, बल्कि भारतीय संघवाद की असली कसौटी है। सवाल यह है कि—क्या संविधान की चुप्पी को न्यायालय भर सकता है, या इसे संविधान निर्माताओं की सोची-समझी व्यवस्था मानकर यथावत छोड़ देना चाहिए?
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