विश्व फेफड़े कैंसर दिवस: साँस लेना विशेषाधिकार नहीं — जन्मसिद्ध अधिकार है
✍️ जे.के. सूर्यवंशी द्वारा
— अंतरात्मा, साहस और सामूहिक कार्रवाई का आह्वान
"हम बिना सोचे साँस लेते हैं,
वे पीड़ा के साथ।"
1 अगस्त को पूरी दुनिया विश्व फेफड़े कैंसर दिवस मनाती है।
लेकिन यह दिन महज़ एक तारीख नहीं है — यह एक सायरन है।
एक ऐसी गूंज, जो याद दिलाती है कि मुक्त रूप से साँस लेना हर किसी के लिए सुनिश्चित नहीं है।
इस दुनिया में नहीं — जहाँ हर दिन हमारे फेफड़े तंबाकू, प्रदूषण, अज्ञानता और उदासीनता से घायल हो रहे हैं।
चलिए स्पष्ट बात करें:
फेफड़े का कैंसर सिर्फ़ एक बीमारी नहीं है — यह हमारी सामूहिक विफलता का प्रतिबिंब है।
📉 वो आंकड़े जो हमें झकझोर देने चाहिए:
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हर साल 2 मिलियन (20 लाख) से अधिक नए मामले
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हर साल 1.8 मिलियन (18 लाख) से अधिक मौतें
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हर 5 में से 1 कैंसर मृत्यु, फेफड़े के कैंसर के कारण
और फिर भी — इन भयावह आंकड़ों के बावजूद —
यह बीमारी कम चर्चा में, कम फंड में और कलंक से घिरी हुई है।
क्यों?
क्योंकि हम सोचते हैं:
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"ये तो स्मोकर की बीमारी है।"
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"इन्होंने खुद किया है अपने साथ।"
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"मुझे तो नहीं होगा।"
यह सोच केवल गलत नहीं, घातक भी है।
🚬 तंबाकू: एक स्पष्ट, फिर भी अनदेखा हत्यारा
धूम्रपान फेफड़े के कैंसर का सबसे बड़ा और पूरी तरह रोके जा सकने वाला कारण है।
हर कश फेफड़ों की परतों को नुकसान पहुँचाता है — और धीरे-धीरे यह नुकसान कैंसर में बदल जाता है।
लेकिन लोग यह नहीं समझते कि:
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पैसिव स्मोकिंग (परोक्ष धूम्रपान) भी उतना ही खतरनाक है — खासकर घर में बच्चों और महिलाओं के लिए।
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धूम्रपान न सिर्फ कैंसर — बल्कि दिल का दौरा, पक्षाघात, नपुंसकता, और सांस की बीमारियों का भी कारण है।
भारत:
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दुनिया का सबसे बड़ा तंबाकू उपभोक्ता देशों में से एक है
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और साथ ही तंबाकू जनित कैंसर का सबसे बड़ा शिकार भी
फिर भी — तंबाकू सस्ता, आसानी से उपलब्ध और सामाजिक रूप से सहनीय बना हुआ है।
क्यों?
क्योंकि:
राजनीति, मुनाफा और नीति-निर्णय की सुस्ती — जनस्वास्थ्य पर हावी हैं।
🏭 सिगरेट से परे: वो अदृश्य हत्यारे जिन्हें हम अनदेखा करते हैं
हर फेफड़े का कैंसर मरीज धूम्रपान करने वाला नहीं होता।
गैर-धूम्रपान से जुड़े प्रमुख कारण:
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वायु प्रदूषण — भारत के कई शहर दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित
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रेडॉन गैस और एस्बेस्टस — पुराने भवनों व खदानों में मौजूद
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औद्योगिक जोखिम — निर्माण, खनन और फैक्ट्रियों में काम करने वाले
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आनुवांशिकता — परिवार में कैंसर का इतिहास भी एक अहम कारण
आज की हवा धीमा ज़हर बन चुकी है।
और फिर भी हम —
वाहनों को वेंटिलेशन पर,
उद्योगों को इंसानों पर,
और सुविधा को स्वच्छता पर प्राथमिकता दे रहे हैं।
❗ फेफड़े का कैंसर — एक मूक महामारी क्यों है?
फेफड़े का कैंसर दरवाज़ा खटखटाकर नहीं आता।
यह धीरे-धीरे, चुपचाप प्रवेश करता है।
प्रारंभिक चरण में:
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कोई लक्षण नहीं
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जब लक्षण आते हैं, तब बीमारी बहुत आगे बढ़ चुकी होती है
लक्षण:
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लगातार खांसी
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सीने में दर्द
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साँस लेने में तकलीफ़
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थकावट
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बिना कारण वजन घटना
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खांसी में खून
जाँच और स्कैन:
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भारत में सिर्फ़ प्राइवेट अस्पतालों में उपलब्ध,
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आम जनता के लिए दूर की बात।
🧪 इलाज: समय के साथ एक दौड़
उपचार इस पर निर्भर करता है:
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कैंसर का प्रकार
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स्टेज क्या है
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मरीज की उम्र, इम्युनिटी और संपूर्ण स्वास्थ्य
इलाज में शामिल:
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सर्जरी — यदि समय रहते पकड़ा जाए
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रेडिएशन थेरेपी
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कीमोथेरेपी
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इम्यूनोथेरेपी — शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति को मजबूत करना
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टारगेटेड थेरेपी — कैंसर कोशिकाओं को विशेष रूप से निशाना बनाना
लेकिन:
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इलाज लंबा, मंहगा और भावनात्मक रूप से थका देने वाला है
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भारत को एकीकृत और सार्वभौमिक कैंसर देखभाल योजना की आवश्यकता है
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आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं में फेफड़े के कैंसर को समाहित करना चाहिए — बिना किसी सामाजिक कलंक के
🛡️ बचाव: वह अस्त्र जिसे हम बार-बार नज़रअंदाज़ करते हैं
रोकथाम ही सबसे प्रभावी, सस्ता और असरदार समाधान है।
यह अब गैर-मोलभाव योग्य होना चाहिए:
✅ तंबाकू त्यागें — पूरी तरह
✅ सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर कड़ी कार्रवाई
✅ हाई-रिस्क समूहों की नियमित जांच (50+ उम्र, स्मोकर, औद्योगिक कर्मचारी)
✅ खतरनाक क्षेत्रों में सुरक्षात्मक उपकरणों का अनिवार्य उपयोग
✅ वायु को साफ करें — कड़े उत्सर्जन मानक, हरित ईंधन, शहरी हरियाली
✅ स्कूल, कॉलेज, ऑफिसों में स्वास्थ्य शिक्षा को अनिवार्य करें
स्वास्थ्य विलासिता नहीं, आधारभूत अधिकार है।
स्वच्छ हवा विकल्प नहीं, आवश्यकता है।
🧠 मौन पीड़ा: फेफड़े के कैंसर मरीजों का मानसिक संघर्ष
हम शायद ही कभी बात करते हैं उस मनोवैज्ञानिक आघात की, जिससे कैंसर मरीज और उनके परिवार गुजरते हैं:
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गिल्ट: “मैंने खुद को बर्बाद किया।”
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एकाकीपन: “लोग सोचते हैं कि मुझे यही मिलना चाहिए था।”
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आर्थिक तबाही: “इलाज के लिए सब कुछ बेच दिया।”
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निराशा: “सिस्टम को कोई फर्क नहीं पड़ता।”
इसलिए, हर कैंसर सेंटर में:
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परामर्श,
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सहयोग समूह,
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और सर्वाइवर नेटवर्क जरूरी हैं —
चाहे वह शहर में हो या गांव में।
💡 शोध, फंडिंग और आशा: आगे का रास्ता
विश्व फेफड़े कैंसर दिवस सिर्फ़ जागरूकता फैलाने का दिन नहीं —
बल्कि यह एक मांग है —
अधिक अनुसंधान की, अधिक समर्थन की, और अधिक जवाबदेही की।
भारत को चाहिए:
🔬 भारत-विशिष्ट कारणों पर रिसर्च
📊 स्टेट-स्तरीय फेफड़े कैंसर रजिस्ट्रियाँ
🧪 रियल-टाइम डेटा और मोबाइल स्क्रीनिंग वैन
💰 सरकारी और निजी निवेश — शुरुआती जांच किट और ग्रामीण अभियान में
🌞 सूर्यवंशी दृष्टिकोण: साँस लो — पर अज्ञानता मत पालो
J.K. Suryavanshi की दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है:
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कैंसर के मरीजों पर दया मत करो — विज्ञान से इलाज करो।
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उनको दोष मत दो — उनको सशक्त बनाओ।
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1 अगस्त का इंतजार मत करो — हर दिन जागो।
क्योंकि:
साँस लेना दुनिया की सबसे स्वाभाविक क्रिया है —
जब तक वो रुक न जाए।और जब रुक जाए —
दुनिया को सिर्फ़ खामोश नहीं,
बल्कि संगठित, जवाबदेह और सक्रिय होना चाहिए।
“साँस लेना विशेषाधिकार नहीं —
यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
इसे बचाइए — नीति से, नीयत से, और निष्ठा से।”
— जे.के. सूर्यवंशी
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