भारत के सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं की नियुक्ति : एक गंभीर लैंगिक असंतुलन
हाल की पृष्ठभूमि
9 अगस्त 2025 को न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया के सेवानिवृत्त होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में दो रिक्तियां उत्पन्न हुईं। यह एक उपयुक्त अवसर था कि न्यायालय में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति कर लैंगिक संतुलन को सुधारा जाए। किंतु ऐसा नहीं हुआ। वर्तमान में 34 न्यायाधीशों के पूर्ण बेंच में केवल न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ही एकमात्र महिला न्यायाधीश हैं।
कोलेजियम की सदस्य होने के नाते, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने हाल की नियुक्ति (न्यायमूर्ति विपुल पंचोली) पर असहमति जताई थी। उनका तर्क था कि अन्य अधिक वरिष्ठ और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व वाले उम्मीदवार मौजूद हैं। किंतु उनकी असहमति पर विचार नहीं किया गया और न्यायमूर्ति पंचोली तथा न्यायमूर्ति आलोक आराधे को 29 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कर शपथ दिलाई गई।
यह परिघटना हमें न केवल नियुक्ति प्रक्रिया की समीक्षा करने के लिए बाध्य करती है बल्कि न्यायपालिका में महिलाओं की न्यूनतम उपस्थिति और उनकी आवाज़ की उपेक्षा की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : महिलाओं की न्यून उपस्थिति
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1950 से अब तक सुप्रीम कोर्ट में कुल 287 न्यायाधीश नियुक्त हुए हैं, जिनमें से केवल 11 महिलाएँ थीं (3.8%)।
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अब तक की महिला न्यायाधीश:
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न्यायमूर्ति फातिमा बीवी (1989–1992)
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न्यायमूर्ति सुजाता वी. मनोहर (1994–1999)
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न्यायमूर्ति रूम पाल (2000–2006)
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न्यायमूर्ति ग्यान सुधा मिश्रा (2010–2014)
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न्यायमूर्ति रंजन प्रकाश देसाई (2011–2014)
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न्यायमूर्ति आर. बनुमति (2014–2020)
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न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा (2018–2021)
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न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी (2018–2022)
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न्यायमूर्ति हिमा कोहली (2021–2024)
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न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी (2021–2025)
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न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना (2021–2027)
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➡️ यह आँकड़े दर्शाते हैं कि महिलाओं की संख्या बेहद नगण्य रही है।
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जातीय विविधता की कमी : अब तक कोई भी महिला न्यायाधीश अनुसूचित जाति या जनजाति समुदाय से नहीं आई हैं।
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धार्मिक विविधता की कमी : केवल न्यायमूर्ति फातिमा बीवी अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) से थीं।
प्रमुख चुनौतियाँ
1. नियुक्ति की उम्र और कार्यकाल की कमी
महिलाओं को अक्सर उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में देर से नियुक्त किया जाता है। परिणामस्वरूप उनका कार्यकाल छोटा होता है और वे कोलेजियम या मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनने की स्थिति तक नहीं पहुँच पातीं।
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उदाहरण: न्यायमूर्ति नागरत्ना भारत की पहली महिला CJI बनेंगी, लेकिन केवल 36 दिनों के लिए (24 सितम्बर 2027 से 29 अक्टूबर 2027 तक)।
2. बार (वकालत) से सीधी नियुक्ति में भेदभाव
1950 से अब तक 9 पुरुष वकीलों को सीधे सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया।
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महिलाओं में यह अवसर केवल न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा (2018) को मिला।
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उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट दोनों में महिला वकीलों की उपेक्षा एक गम्भीर समस्या है।
3. कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव
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सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश (CJI) और चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की कोलेजियम द्वारा की जाती है।
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फिर यह सिफारिशें कानून मंत्री → प्रधानमंत्री → राष्ट्रपति को भेजी जाती हैं।
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2017 में CJI दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली कोलेजियम ने नियुक्तियों के कुछ कारण सार्वजनिक किए थे, किंतु बाद के वर्षों में यह पारदर्शिता बरकरार नहीं रही।
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जाति, धर्म, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को कभी-कभी ध्यान में रखा जाता है, किंतु लिंग (Gender) को कभी संस्थागत मानदंड नहीं बनाया गया।
4. महिलाओं की राय की उपेक्षा
न्यायमूर्ति नागरत्ना द्वारा हाल में जताई गई असहमति (वरिष्ठता और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के आधार पर) पर विचार नहीं किया गया। इससे यह धारणा बनती है कि महिला न्यायाधीशों की दृष्टि को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता।
क्यों आवश्यक है महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति?
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न्याय में विविध दृष्टिकोण – महिलाएँ अपने जीवन और पेशेवर अनुभवों से अलग दृष्टिकोण लाती हैं, जो न्यायिक निर्णयों को संतुलित बनाता है।
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सामाजिक प्रतिनिधित्व – सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करना है; इसमें महिलाओं की पर्याप्त उपस्थिति आवश्यक है।
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जनता का विश्वास और भरोसा – जब Bench पर विविधता होगी तो जनता का न्यायपालिका पर भरोसा बढ़ेगा।
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लैंगिक न्याय का संदेश – सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा लैंगिक समानता पर ज़ोर दिया है (उदाहरण: बार एसोसिएशन में 30% महिलाओं को आरक्षण की सिफारिश), लेकिन खुद कोर्ट में महिलाओं की न्यून उपस्थिति इस संदेश को कमज़ोर बनाती है।
आगे का रास्ता
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लैंगिक प्रतिनिधित्व को अनिवार्य मानदंड बनाया जाए।
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उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए एक लिखित नीति बने।
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महिला न्यायाधीशों की कम उम्र में नियुक्ति की जाए ताकि उनका कार्यकाल लंबा हो और वे कोलेजियम व CJI तक पहुँच सकें।
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बार से सीधे महिलाओं की नियुक्ति को बढ़ावा दिया जाए।
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कोलेजियम की प्रक्रिया पारदर्शी बने और चयन मानदंड सार्वजनिक हों।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं की न्यून उपस्थिति न केवल न्यायपालिका के प्रतिनिधि स्वरूप को कमज़ोर करती है बल्कि न्यायिक विविधता और लैंगिक न्याय की धारणा को भी प्रभावित करती है। यदि सर्वोच्च न्यायालय वास्तव में "सभी नागरिकों का न्यायालय" बनना चाहता है, तो इसमें महिलाओं की पर्याप्त और विविध पृष्ठभूमि से नियुक्ति अत्यावश्यक है।
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