“भारत में एफडीआई का प्रवाह कागज़ पर मज़बूत दिखता है, लेकिन बढ़ते विनिवेश और बाह्य निवेश गहरे संरचनात्मक संकटों की ओर संकेत करते हैं। समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।”
भूमिका
1991 के उदारीकरण के बाद से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) भारत की पूंजी, प्रौद्योगिकी और वैश्विक एकीकरण का महत्त्वपूर्ण स्रोत रहा है। हाल के वर्षों में एफडीआई का परिदृश्य विरोधाभासी है—सकल प्रवाह मज़बूत है परंतु वास्तविक शुद्ध पूंजी न्यूनतम रह गई है।
वर्तमान स्थिति
2024–25 में भारत में 81 अरब डॉलर का FDI प्रवाह हुआ, परंतु 51.4 अरब डॉलर का विनिवेश और 29.2 अरब डॉलर का बाह्य निवेश हुआ। इस प्रकार शुद्ध एफडीआई केवल 0.4 अरब डॉलर रह गया।
संरचनात्मक चुनौतियाँ
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लघुकालिक लाभ-केंद्रित निवेश – कर-स्वर्ग (Mauritius, Singapore) से आने वाले मार्ग निवेश की स्थायित्व पर प्रश्न उठाते हैं।
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क्षेत्रीय असंतुलन – विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा घटकर ~12% रह गया, जबकि सेवाएँ हावी हैं, जिससे रोज़गार और औद्योगिक गहराई सीमित होती है।
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नीतिगत अस्थिरता – विनियामक अस्पष्टता, कर विवाद और अवसंरचनात्मक बाधाएँ दीर्घकालिक निवेश को हतोत्साहित करती हैं।
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बढ़ता बाह्य निवेश (ODI) – भारतीय कंपनियाँ स्थिर एवं पूर्वानुमेय व्यवस्था के लिए विदेशों में निवेश करना अधिक उपयुक्त समझ रही हैं।
परिणाम
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औद्योगिकीकरण व रोज़गार सृजन में कमी।
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नवाचार और तकनीकी हस्तांतरण सीमित।
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बाह्य क्षेत्र की मज़बूती और मौद्रिक नीति की लचीलापन घटा।
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भारत पूंजी का आयातक नहीं, बल्कि आंशिक रूप से निर्यातक बनने की ओर अग्रसर।
आगे की राह
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संख्या नहीं, गुणवत्ता व स्थायित्व पर बल।
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नीति स्थिरता, पारदर्शिता और त्वरित विवाद निपटारा।
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अवसंरचना व लॉजिस्टिक सुधार से विनिर्माण निवेश को आकर्षित करना।
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मानव पूंजी और अनुसंधान पर निवेश कर उन्नत प्रौद्योगिकी व हरित एफडीआई आकर्षित करना।
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भारतीय कंपनियों को देश में ही पुनर्निवेश हेतु प्रोत्साहित करना।
निष्कर्ष
भारत के लिए चुनौती एफडीआई को आकर्षित करने की नहीं बल्कि उसे सहेजने और विकासात्मक प्राथमिकताओं से जोड़ने की है। गुणवत्तापूर्ण व दीर्घकालिक निवेश ही औद्योगिक वृद्धि, नवाचार और टिकाऊ विकास सुनिश्चित कर सकता है।
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