जल केवल संसाधन नहीं, संस्कृति है – प्राचीन भारत से वर्तमान तक जल प्रबंधन की यात्रा
भूमिका
“जल ही जीवन है” – यह वाक्य केवल एक वैज्ञानिक सत्य नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है। भारत जैसे देश में, जहाँ नदियों को माँ कहा जाता है, कुओं और तालाबों की पूजा की जाती है, और जहाँ वर्षा के स्वागत में त्यौहार मनाए जाते हैं – वहाँ जल सिर्फ एक भौतिक संसाधन नहीं बल्कि संवेदनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान है।
प्राचीन भारत में जल प्रबंधन न केवल तकनीकी कुशलता का प्रतीक था, बल्कि उसमें समाज की सहभागिता, परंपरा और धर्म की गहराई से भूमिका होती थी। आधुनिक भारत में जल संकट, बाढ़, सूखा और प्रदूषण की समस्याएं बताती हैं कि हमने जल को सिर्फ संसाधन मान लिया, उसकी संस्कृति को भुला दिया।
प्राचीन भारत में जल की सांस्कृतिक अवधारणा
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जल = देवत्व
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गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी नदियों को देवी के रूप में पूजा गया।
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‘पुष्करिणी, कुंड, सर’ जैसे जल निकाय धार्मिक अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा थे।
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जल = सामाजिक न्याय
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'कुडीमरामथु' (तमिलनाडु) जैसी परंपराएं – सामूहिक जल संरचना का रख-रखाव।
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भील, गोंड, और अन्य जनजातियों में जल स्रोतों की साझा देखभाल।
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जल = स्थापत्य और वास्तुकला
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बावड़ी (जैसे रानी की वाव, गुजरात), झीलें (जैसे उदयपुर की झीलें), घाट (जैसे वाराणसी के) – जल और वास्तुकला का मिलन।
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राजा = जल रक्षक
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चोल शासक: जैसे राजेंद्र चोल द्वारा चोल गंगम (जल स्तंभ) का निर्माण।
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मौर्यकाल: चंद्रगुप्त के समय सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण, अर्थशास्त्र में जल कर (udaka bhaga) का उल्लेख।
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मध्यकाल में जल का सामुदायिक स्वरूप
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मुगल बाग़ों में तालाबों का सामरिक और सौंदर्यात्मक उपयोग।
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राजस्थान में जोहर और तालाब प्रणाली – जैसे चांद बावड़ी, गडसर झील।
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गुरुद्वारों में सरोवर – जैसे अमृतसर का ‘सरोवर’ – शुद्धता और आस्था का प्रतीक।
आधुनिक भारत: जब जल संसाधन बन गया
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औपनिवेशिक प्रभाव:
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अंग्रेजों ने पारंपरिक जल प्रणालियों को उपेक्षित किया।
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नदी प्रणाली का दोहन किया गया – बांध और नहरें नियंत्रण के उपकरण बन गए।
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विकास बनाम संस्कृति:
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शहरीकरण में नदियों को नाला बना दिया गया।
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पारंपरिक तालाबों पर इमारतें, सड़कें और अपार्टमेंट।
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प्रदूषण और शोषण:
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यमुना, गंगा, नर्मदा जैसी नदियाँ प्रदूषित।
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भूजल का अंधाधुंध दोहन – जल स्तर 1000 फीट से नीचे।
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प्राचीन से सीख: जल प्रबंधन की पुनर्रचना
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सांस्कृतिक पुनरुद्धार:
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नदियों को फिर से धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से पुनः प्रतिष्ठा देना।
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नमामि गंगे, अमृत सरोवर योजना – अच्छे प्रयास हैं, लेकिन सामुदायिक भागीदारी आवश्यक।
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स्थानीय ज्ञान का उपयोग:
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झीलें, कुँए, बावड़ियाँ, चेक डैम – स्थानीय स्थितियों के अनुसार बेहतर समाधान।
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लोक सहभागिता:
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कुडीमरामथु जैसी परंपराओं को फिर से जीवित करना।
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जल पंचायतें, महिला स्वयं सहायता समूहों की भूमिका।
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शिक्षा और चेतना:
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जल संरक्षण को विद्यालय स्तर से नैतिक शिक्षा में जोड़ना।
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निष्कर्ष
भारत में जल कभी केवल पीने या सिंचाई का माध्यम नहीं रहा – वह संस्कृति, आस्था, शुद्धता, साझेदारी और सामूहिक चेतना का स्रोत रहा है। जब तक हम जल को केवल एक भौतिक संसाधन मानकर योजनाएँ बनाते रहेंगे, तब तक समस्या बनी रहेगी।
आज आवश्यकता है कि हम प्राचीन दृष्टिकोण को आधुनिक विज्ञान से जोड़ें, जिससे जल केवल संरक्षण की योजना नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव बन सके। जब जल फिर से संस्कृति बनेगा, तभी भारत जल संकट से बाहर निकलेगा।
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