सुप्रीम कोर्ट का फैसला: धारा 498-A और लैंगिक न्याय पर चोट?
यूपीएससी अभ्यर्थियों के लिए विश्लेषण
परिचय
जुलाई 2024 में शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें आईपीसी की धारा
498-A (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) के तहत गिरफ्तारी पर रोक लगाने का समर्थन किया गया। यह फैसला पति या ससुराल वालों द्वारा महिलाओं के साथ क्रूरता के मामलों में त्वरित कार्रवाई को कमजोर कर सकता है।
यह मुद्दा यूपीएससी की तैयारी के लिए अहम है, क्योंकि यह निम्नलिखित विषयों से जुड़ता है:
- भारतीय
न्यायपालिका और
लैंगिक न्याय (जीएस
पेपर
II)
- महिला
अधिकार और
सामाजिक न्याय (जीएस
पेपर
I & II)
- आपराधिक
न्याय प्रणाली
में सुधार (जीएस
पेपर
II & III)
धारा 498-A आईपीसी क्या है?
- 1983
में लागू की
गई
यह
धारा विवाहित
महिला के
साथ क्रूरता को
दंडित
करती
है।
- क्रूरता
की परिभाषा:
- शारीरिक/मानसिक
प्रताड़ना
- दहेज
उत्पीड़न
- महिला
को
आत्महत्या
के
लिए
मजबूर
करना
- सजा: 3
साल की
जेल + जुर्माना
- उद्देश्य:
दहेज
हत्या
और
घरेलू
हिंसा
के
बढ़ते
मामलों
को
रोकना।
न्यायिक और विधायी इरादा
- संसद ने
माना
कि
घरेलू
हिंसा
अक्सर रिपोर्ट
नहीं की
जाती।
- दहेज
निषेध अधिनियम
(1961) और घरेलू
हिंसा अधिनियम
(2005) जैसे
कानूनों
को
धारा
498-A के साथ
मिलाकर
लागू
किया
गया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मुख्य बातें
1. 2 महीने की 'कूलिंग-ऑफ' अवधि
- एफआईआर
दर्ज होने
के बाद
2 महीने तक कोई
गिरफ्तारी
नहीं।
2. फैमिली वेलफेयर कमेटियों का गठन
- मामलों
को जिला
स्तरीय समितियों को
भेजा
जाएगा,
जो
मध्यस्थता
करेंगी।
3. गिरफ्तारी से पहले मजिस्ट्रेट की मंजूरी
- पुलिस
को
गिरफ्तारी
से
पहले न्यायिक
समीक्षा करनी
होगी
(अर्नेश
कुमार
दिशानिर्देश,
2014 के अनुसार)।
फैसले की आलोचना
1. सामाजिक वास्तविकता की अनदेखी
- एनएफएचएस-5 के
अनुसार, घरेलू
हिंसा के
90% मामले
रिपोर्ट नहीं होते।
- एनसीआरबी
2022 के
अनुसार,
सिर्फ 18%
मामलों में
सजा मिलती
है,
लेकिन
यह
दर
अन्य
अपराधों
से बेहतर है।
2. पीड़िताओं को खतरा
- 2
महीने की
देरी के
दौरान
महिलाएं और
अधिक प्रताड़ना झेल
सकती
हैं।
3. क्या न्यायपालिका ने विधायी शक्ति का अतिक्रमण किया?
- संसद ने
धारा
498-A को विशेष
सामाजिक संदर्भ में
बनाया
था।
- सुशील
कुमार शर्मा
बनाम भारत
संघ (2005) में
SC ने
कहा
था: "कानून
का दुरुपयोग,
इसे खत्म
करने का
आधार नहीं
हो सकता।"
4. शिकायतकर्ताओं पर नकारात्मक प्रभाव
- महिलाएं पुलिस
में रिपोर्ट
करने से
डरेंगी अगर
तुरंत
सुरक्षा
नहीं
मिलेगी।
फैसले के पक्ष में तर्क
- कथित
दुरुपयोग पर
रोक
- कुछ
का
मानना
है
कि झूठे
मामले पति/ससुराल
वालों
को
प्रताड़ित
करने
के
लिए
दर्ज
किए
जाते
हैं।
- लेकिन, कोई
ठोस आंकड़ा नहीं
है
जो
बड़े
पैमाने
पर
दुरुपयोग
साबित
करे।
- मध्यस्थता
को बढ़ावा
- कोर्ट
ने पारिवारिक
विवादों में
समझौता करने
पर
जोर
दिया।
- लेकिन, गंभीर
हिंसा के
मामलों
में
मध्यस्थता उचित
नहीं है।
यूपीएससी के लिए महत्वपूर्ण बिंदु
संवैधानिक पहलू
- अनुच्छेद
14 (समता
का अधिकार):
क्या
लैंगिक
पूर्वाग्रह
के
आधार
पर
कानून
को
कमजोर
करना
उचित
है?
- शक्ति
पृथक्करण: क्या
न्यायपालिका
को
कानून
बदलने
का
अधिकार
है?
सामाजिक दृष्टिकोण
- पितृसत्तात्मक
सोच: महिलाओं
को
अक्सर शिकायत
वापस लेने के
लिए
दबाव
डाला
जाता
है।
- न्यायिक
पूर्वाग्रह: क्या
अदालतें
"परिवार की
सद्भावना"
को
महिलाओं
की
सुरक्षा
से
ऊपर
रखती
हैं?
तुलनात्मक अध्ययन
- ब्रिटेन
(डोमेस्टिक एब्यूज
एक्ट 2021):
पीड़िता
की
सुरक्षा
पर
फोकस।
- अमेरिका
(VAWA): तुरंत
सुरक्षा
आदेश
जारी
करने
का
प्रावधान।
आगे की राह
- जांच
प्रक्रिया सुधारें
- पुलिस
को संवेदनशील
बनाएं।
- फास्ट-ट्रैक
कोर्ट बनाएं।
- संतुलन
बनाए रखें
- न
तो मनमानी
गिरफ्तारी, न
ही अभियुक्तों
को अत्यधिक
सुरक्षा।
- विधायी
सुधार
- अगर
दुरुपयोग
की
समस्या
है,
तो संसद कानून
में
संशोधन
करे।
- जागरूकता
बढ़ाएं
- वन-स्टॉप
सेंटर (OSCs) और निर्भया
फंड का
विस्तार
करें।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, हालांकि कानून के दुरुपयोग को रोकने की मंशा से लिया गया, लेकिन इससे पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। यूपीएससी अभ्यर्थियों के लिए यह केस निम्नलिखित मुद्दों को समझने में मददगार है:
- न्यायिक
सक्रियता बनाम
विधायी इरादा
- आपराधिक
कानून में
लैंगिक न्याय
- घरेलू
हिंसा से
निपटने में
सुधार की
आवश्यकता
विचारणीय प्रश्न: क्या न्यायपालिका को कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना चाहिए, या उसे सिर्फ कानून की व्याख्या तक सीमित रहना चाहिए?
संदर्भ:
- एनसीआरबी
रिपोर्ट
(2022)
- एनएफएचएस-5
डेटा
- अर्नेश
कुमार बनाम
बिहार राज्य
(2014)
- सुशील
कुमार शर्मा
बनाम भारत
संघ (2005)
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